त्रिशूल उपन्यास - शिवमूर्ति / क्या बदलने से कुछ बदलता है?
मैं सोचता ही रहता हूँ कि ऐसी कौन-सी बात है जो मुझे खाये जा रही है? अंदर से हर रोज कुछ कम होता जा रहा है। यह कौन-सी चिंता है जो मुझे उदास किये हुए है। मेरी आत्मा कब खिलखिलाकर हँसेगी। मैं नहीं जानता कि मुझे किस तरह की परेशानी ने घेर रखा है। हर तरह का प्रयास कर रहा हूँ, कुछ लिखने का पढ़ने का, फिल्में देखने का, गाने आदि-आदि, मुझे क्या चाहिए मुझे खुद नहीं पता चल रहा। जो है उससे खुशी नहीं है, क्या मिल जाये उससे खुशी मिलेगी? मैं चिंतित, और अधर में लटका हुआ हूँ।
पूर्व की अवधारणों ने हमेशा मानव मन पर राज किया है। हमें हमारे आस-पास ने हमारे चाहे या न चाहने पर भी कई चीजें देती हैं। उनमें से कुछ चीजें है जैसे 'डर और नफरत' मैं हर रोज कई अपने सहपाठियों से गले मिलता हूँ। मैं जामिया में पढ़ता हूँ तो ज्यादातर मुस्लिम लड़के हैं, उनमें से कुछ ऐसे हैं जो दिखावे के लिए गले मिलते हैं। उनके गले मिलने में, वह प्रेम नहीं दिखता, या आलिंगन के वक्त वह भाव नहीं मिलता जो किसी दूसरे से मिलते वक्त मिलता है। मन कहता है कि कहूँ- अरे यार! थोड़ी देर भूल तो जा कि मैं हिन्दू और तू मुसलमान है, कब तक इस शरीर को एक दूसरे से मिलाएँ, कभी तो यार दिल मिलने दे। एक दिन यह बात उससे जरूर कहूँगा।
मैंने अभी 'त्रिशूल' पढ़ा है। इस साल का यह मेरा पहला उपन्यास है जिसे मेरे एक जूनियर बालिका ने दिया है। इस उपन्यास के रचनाकार 'शिवमूर्ति' हैं, जो कि राजकमल छापेखाने की है।
जब तक मैं जामिया नहीं आया था तब तक मुझे नहीं पता था कि मुस्लिमों में भी उतना ही जातिवाद है जितना कि हम हिंदुओं में है। नफ़रत का और अपने आप को श्रेष्ठ समझने का आलम दोनों तरफ बराबर है। दोनों तरफ अच्छे लोग हैं जो अच्छाई के लिए संघर्ष कर रहें हैं। दोनों तरफ बुरे लोग हैं जो कुछ झूठी समाजिक प्रतिष्ठा, धन-दौलत और फूहड़ आनंद के लिए जातिवादी बने बैठे हैं। पर इस बात से मैं निराश नहीं हूँ, किताबों से इतना पता तो चल गया है कि ऐसे लोग हर समय हुए हैं और ये लोग कभी जीत नहीं पाते हैं। कुछ समय तक यह लोग राज जरूर करते हैं लेकिन फिर यह रसातल में दब जाते हैं।
त्रिशूल उपन्यास में मुझे वह सबकुछ दिखता है जो कि मेरे आस-पास हो रहा होता है। किस तरह मिलने से पहले मेरा एक सहपाठी मेरी जाति और मेरी पैतृक संपत्ति का पता लगाने के लिए अनंत प्रयास करता है। जिसमें वह सफल भी हो जाता है। फिर वह जानकर मुझसे दूरियाँ बनाने लगता है और यह दूरियाँ कब धीरे-धीरे नफरत में बदल जाती है पता ही नहीं चलता। एक दिन मुझे भी एहसास हुआ कि मैं सच में नफ़रत की निगाहों से उसे देख रहा हूँ। मैं तुरंत अपने आप को संभाला मैं ने खुद से पूछा कि मैं ऐसा नहीं था। नफ़रत का जबाब नफरत से दूँ यह तो मैंने नहीं सीखा था। यह तो उसका काम है मेरा काम तो नफरत को प्रेम में बदलना था न? मैं क्यों बदल रहा हूँ। मुझे नए तरीके से सोचने की जरूरत हुई। मैंने सोचा और फैसला किया कि यह अच्छा मौका है अपने आप में सुधार करके बेहतर इंसान बनाने का, उसी मार्ग पर अब बस चलना है, चलते रहना है।
मैंने अपने स्नातक की पढ़ाई में जितना थोड़ा सा दलित साहित्य पढा था उससे इतना ही समझ आया कि हम उनके दुख को सौ प्रतिशत नहीं समझ सकते हैं। जिसने भोगा है उसके प्रति सहानुभूति हो सकती है। उसके दर्द को हम मरहम लगा सकते हैं महसूस नहीं कर सकते। पर अब ऐसा नहीं लगता अब लगता है कि हाँ, हो सकता है कि मैं उनके द्वारा भोगे गए दर्द को अपने शरीर पर महसूस नहीं कर सकता। उन्हें जितनी यातनाएं दी गयी हैं वह मेरा शरीर नहीं समझता। पर मेरा ह्रदय, मेरी आत्मा उस दर्द से भलीभांति परिचित है। मुझे लगता है कि मेरी आत्मा और उनकी आत्मा की समझ एक जैसी है। वह उन सभी दुखों को उसी भाषा में समझती है जिसमें वह मौजूद है। आत्मा भेद नहीं करती है कि यह उसका दुख है या मेरा भोगा यथार्थ। मेरे आत्मा की व्याकुलता ठीक वैसी ही है जैसे उनकी आत्मा विह्वल हो उठती हैं।
उपन्यास में एक ऐसा जिक्र है जिसने मुझे मेरा चेहरा दिखा दिया है। जब मैं गाँव से शहर आता हूँ तो यह बात भूल जाता हूँ कि मैं एक समृद्ध सवर्ण परिवार का लड़का हूँ। सबके साथ उठना-बैठना, खाना-पीना। किसी से उसकी जाति का न पूछना। एक एलीट क्लास जिसे कहते हैं उसके जैसा व्यवहार करता हूँ फिर वापस लौटते ही मुझे क्या हो जाता है? " उपन्यासकार शिवमूर्ति ने ठीक ही लिखा है कि - ये दकियानूसी विचारें रास्ते में ही बैठे कहीं छिपे इंतजार कर रहे होते हैं।" वापसी में यह फिर से हमारे कंधे पर बैठकर उसी दिशा में चलने लगते हैं। हमें फिर से पुराना वही बना देते हैं जिस रूप में हम जन्में थे।
आख़री में क्या बचता है हमारे पास कुछ लोग, कुछ अनाज, कुछ दिन और किताब के आख़री पन्ने पर कुछ डॉट्स(...)
त्रिशूल उपन्यास को पढ़ा जाना चाहिए।
👍👍
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