Chopsticks A Cinema.
जब आप थोड़ा-थोड़ा प्यार महसूस करने लगें हों।
okay,
मैं कहना ये चाहता हूँ कि
जैसे कोई किसी के प्यार में नया-नया पड़ता है, उसके चेहरे पर जो मंद-मंद मुस्कान थोड़ी-थोड़ी देर पर उभर आती है। बिल्कुल वैसी ही मुस्कान आपको 'chopsticks' फ़िल्म को देखते वक्त होगी। बेजान गर्मी वाले दिन की शाम में जब बारिश होती है और आप अपनी प्रेमिका का हाथ पकड़कर बारिश में भींगते हैं, तब जो एहसास होता है, वही एहसास इस फ़िल्म को देखते वक्त मुझे हुआ।
'Chopsticks' एक offbeat थोड़ी quirky फ़िल्म है। जिसे लिखा है Sachin yardi और Rahul awte. और डायरेक्ट किया है सचिन यार्डी ने ही। इस फ़िल्म के मुख्य किरदार हैं 'Mithila palkar, Abhay deol, Vijay Raaz. इसके अलावा भी थोड़े चेहरे देखने को मिलते हैं। इस फ़िल्म की सबसे अच्छी चीज यह भी थी कि इसके कास्ट क्रू कम थे। जिससे कहानी का जो सॉफ्टनेस होना चाहिए था वो एक्टर के चेहरे से हटा नहीं।
2019 में आई इस फ़िल्म को अभी नेटफ्लिक्स पर देखा जा सकता है। 'निरमा' नाम की जिस लड़की का किरदार मिथिला निभा रहीं हैं। वो थोड़ी कम आत्मविश्वासी, झिझक से भरी, अपनी बात नहीं कह पाने वाली होती है। जिसने एक रेड कलर का i10 कार लिया है, और उसी दिन चोरी हो जाती है... कार को खोजने में ही उसे अभय देओल जो कि 'एक्टर' नाम का किरदार निभा रहे होते हैं, से मुलाकात होती है और फिर विजय राज़ की एंट्री होती है। पूरी कहानी मुख्य रूप से इन्हीं तीनों के बीच घूमती है।
ये फ़िल्म मुझे इसलिए ज्यादा पसन्द आयी क्योंकि इस फ़िल्म में कास्ट क्रू कम थे। जितनों की जरूरत थी उतने ही इस्तेमाल किये गए। जैसे 'निरमा' को बार बार अपनी माँ से बात करते हुए दिखाया गया, जिसमें फ़ोन पर एक साइड का ही फुटेज लगाया गया। उनकी माँ कौन थी, कैसी दिखती हैं। ये सब दर्शकों के कल्पना पर छोड़ दिया गया है।ये हिस्सा खूबसूरत लगा। सचिन और राहुल ने स्क्रीन प्ले अच्छा लिखा है। उनकी मेहनत हर एक सीन के डिटेलिंग में दिखती है। एक और खूबसूरत प्रयोग इस फ़िल्म में देखने को मिलती है। कुछ देर पर सीन में कोई 'quote' लिखा हुआ नजर आता है, जैसे किसी गाड़ी के पीछे, टैक्सी, या दीवार पर और उस quote, या कथन का उस सीन के साथ जोड़ना, अच्छा प्रयास था. उदाहरण के लिए जब 'बाहुबली' के मेकअप के लिए निरमा जाती है तो बैकग्राउंड में लगी टैक्सी पर लिखा होता है जो कुछ समय के लिए in फोकस होता है- दम है तो आगे बढ़ वरना बर्दाश्त कर। निरमा के लिए यह मुश्किल घड़ी रहती है। ऐसे कई उदाहरण आपको सिनेमा में दिखेंगे। यह आपको सिनेमा के केंद्र में ले जाने में मदद करेगा।
कुछ डायलॉग बहुत अच्छे लगे जैसे- आप हमेशा वाइट और ब्लैक में ही क्यों रहते हैं?, सभी होते हैं बस कोई मानता नहीं,,
मैं ताले के दिल को सुनता हूँ,,
एक दिन हर कोई चोरी करता है और भी हैं पर मुझे...
निरमा यानी कि मिथिला ने पूरे फ़िल्म में भोली-भाली लड़की का किरदार निभाया है। डायरेक्टर ने उनके चेहरे पर शुरू से अंत तक यही भाव बनाये रखने को कहा है यह खूबसूरत लगता है। चूँकि कई बार यह देखने को मिलता है कि जब किसी किरदार में आत्मविश्वास फूँका जाता है तो उसके अंदर से उसकी मासूमियत को खत्म कर दिया जाता है। पर ऐसा यहाँ नहीं है। वह पहले सीन से आख़री सीन तक अपने चेहरे पर अपनी मासूमियत बनाये हुए है। यहाँ भी तारीफ डायरेक्टर के झोली में जाती है।
हर बार जरूरी नहीं है कि फ़िल्म कोई बड़ा मैसेज दे। समाज सुधार की ही बात हो, फ़िल्म कभी-कभी आपके ह्रदय(दिल) को छूने के लिए भी बनाई जानी चाहिए। ऐसी ही फ़िल्म है, 'चॉपस्टिक' .
आपके पास समय हो, बिना किसी ताम-झाम एक्शन, के शांत, स्मूथ, offbeat, बिना किसी क्रांति वाली, सुकून देने वाली सिनेमा को देखने का मन हो तो चॉपस्टिक चूज कर सकते हैं।
क्योंकि समय आपका, पसन्द आपकी
...∆...
मेरे ख़्याल से जिस तरह से आपको ये फ़िल्म soft लगी। उसी softness के साथ आपने इस फ़िल्म का review लिखा है। ताम-झाम वाले शब्दों का प्रयोग नहीं किया।
ReplyDeleteजी सही कहा, उन शब्दों से चीजें बोझिल हो जाती हैं।
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