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Showing posts from 2022

जामिया कॉर्नर 2

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जामिया कॉर्नर जामिया में मेरी एक दिनचर्या है। इसके बारे में लिखने के लिए मैंने एक नाम सोचा है। आगे मैं इसी नाम "जामिया कॉर्नर" से लिखूँगा। जिसमें जामिया में मेरे बीते दिन या किसी घटना के बारे में बात करूँगा। आज क्लास में मैं दस मिनट देर से पहुँचा। सर् ने सिनेमा पर कुछ-कुछ बातें शुरू कर दी थी। मेरे पहुँचने से पहले सर् ने कल की कुछ बातों को दुहराया और आगे की टॉपिक पर बढ़ने लगे थे। आज हमने सिनेमा संस्कृति से जोड़कर देखने का प्रयास किया। यह एक नया अनुभव था। मैंने सिनेमा को इस तरह से आज से पहले न कभी सुना था। न इस पर बात करने के लिए सोचा था। हमने उत्सवधर्मिता से नाट्यशास्त्र और फिर सिनेमा तक के सफर पर एक निगाह डाला। हमने चर्चा के दौरान CSR कॉरपोरेट सोशल रेस्पोंसबिलिटी और इंटरकास्ट मैरेज के आँकड़े साथ ही मालिक मो. जायशी रचित पद्मावत पर भी नजर डाली। अच्छी बात-चीत चल रही थी। हमारी क्लास कमरा संख्या 204 में चल रही थी। पर इस कक्षा की एक समस्या है कि इसमें खिड़की से आवाज़ आती है सड़क पर चलने वाली गाड़ी और मेट्रो का। अगर ज़ामिया के इंफ्रास्ट्रक्चर की बात करें तो हिन्दी विभाग दयनीय स्थिति मे...

जामिया में अपनी पहली क्लास

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आज मैंने जामिया में अपनी पहली क्लास ली। आज सुबह जब साढ़े चार मैं जगा। तब से ढाई घण्टे तक लगातार लिखता रहा। सोचता-लिखता यही करते-करते कब सुबह हुई और सूरज ने पुकारा मुझे पता ही नहीं चला। लेकिन हुआ यह कि जब मैं उसे सेव करके रखना चाह रहा था तो वो डिलेट हो गया। बहुत अफ़सोस हुआ। दरअसल मैंने शिक्षक दिवस पर अपने शिक्षकों को याद करते हुए बचपन से लेकर अब तक के मिले शिक्षकों के बारे में लिखा था। ख़ैर वापस जामिया पर आते हैं। आज मेरी पाँच क्लास थी। लेकिन हमें सिर्फ चार क्लास के बारे में बताया गया था। यह एक सेंट्रल यूनिवर्सिटी है और यहाँ भी शिक्षकों की भारी कमी है यह नहीं पता था। हमारे एक शिक्षक हैं। नाम है डॉ. आर. के. दुबे। हमने पिछले सेमेस्टर में उनसे ऑनलाइन पढ़ाई की है इनके साथ। इस सेमेस्टर में कोर के चारों पेपर यही एक शिक्षक पढ़ा रहें हैं। आज पहला दिन था इन्होंने लगातार 11.50 से दो घण्टे क्लास लिया। फिर 3.40 से दो घण्टे क्लास लिया। पहले पेपर में हमें सिनेमा: विकास और सौंदर्यशास्त्र पढा। कुछ बेसिक बातें थी जो दो घण्टों तक चली। फिर छात्रों ने ही ब्रेक की इच्छा जाहिर कर दी। और सर् ने ब्रेक दिया और कह...

"शेष मैं हूँ" और कुछ किताबें

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"शेष मैं हूँ" और कुछ किताबें दिल्ली आए हुए 4 साढ़े 4 साल हो चुका है। आज से मैं अपना भार खुद उठाने जा रहा हूँ। मतलब यह कि मैं अपना कमरा बदल रहा हूँ। यहीं एक सवाल है मन में कि एक आदमी जिस कमरे में रहता है क्या उसे हम घर कह सकते हैं। एक कमरे में एक इंसान है क्या वह घर है? इसका जबाब आप लोग दें। अब आगे की अपडेट, जामिया ने कहा है कि वो हमारे अगले सेमेस्टर की पढ़ाई ऑफलाइन शुरू करने जा रही है। कब से? यह अभी भी क्लियर नहीं हुआ है। जबकि बाकी सभी डिपार्टमेंट की पढ़ाई शुरू हो चुकी है। इसलिए मैंने अपना कमरा नॉर्थ से साउथ शिफ्ट कर लिया। इससे पहले मैं अपने एक मित्र (मेरे सीनियर) रौशन भैया के साथ अब तक मतलब साढ़े 4 साल दिल्ली में साथ रहा। अब मैं उनसे बिछड़ रहा हूँ। बिछड़ना हो सकता है कि फायदेमंद हो पर यह तकलीफ़ बहुत देती है। जो कि महसूस हो रही है। कोई मुझसे पूछ देता है कि रौशन से अलग हो रहे हो? तो मेरे अंदर का सारा पानी सूख जाता है। कभी यह संभव है कि मैं उससे बिछड़ सकता हूँ, अलग हो सकता हूँ, नहीं ऐसा नहीं होगा। जब भी कोई ऐसा व्यक्ति जो मुझे और रौशन को जानता हो। वो अगर मुझे रसोई में काम क...

'रक्षाबंधन: सपरिवार देखे जाने वाला फ़िल्म' हँसना और रोना दोनों साथ साथ

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आनंद एल. राय की फ़िल्म रक्षाबंधन हम जिस मूड के साथ सिनेमा देखने गए उसी मूड के साथ बाहर नहीं आ पाए। हमें पता था फ़िल्म भाई-बहन के प्यार और उनकी शादी में हो रही समस्या पर आधारित है। लेकिन फ़िल्म में कुछ ऐसा भी है जो कई दफ़ा रुला देता है। फ़िल्म का फर्स्ट हाफ हँसा-हँसा कर लोट-पोट कर देता है। जिसके हिस्से जो भी डॉयलोग्स हैं उसमें उसने उतना फन क्रिएट किया है। फन भी ऐसा जो बनावटी न होकर, स्वतः हो रहा हो। अक्षय यानी कि केदारा ऐसे भाई का किरदार निभा रहें हैं जिसकी 4 बहनें हैं। जिसने वादा किया है कि वह अपनी शादी अपनी सभी बहनों की शादी के बाद करेगा। क्या वह कर पाता है? या नहीं? यह आपको खुद देखना चाहिए। अभिनय की बात करें तो अक्षय कुमार कभी भी किसी भी फिल्म में अपने बॉडी लैंग्वेज पर काम नहीं करते। उन्हें कैसे दौड़ना है दिल्ली की गलियों में यह उन्हें पता ही नहीं। आपने सरदार उद्धम सिंह देखा होगा उसमें जलियांवाला बाग की तरफ भागते विक्की को देख लगता है कि कोई पंजाबी ग्रामीण लड़का ऐसे ही दौड़ता होगा। लेकिन जब दिल्ली की गलियों में अक्षय को चलते-दौड़ते देखते हैं तो लगता है कि अक्षय अभी तक फ़ौजी वाले गेटअप से ...

ज्ञानवापी मस्जिद विवाद

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हमारा देश शुरू से ही सम्प्रदायिकता के घेरे में रहा है। यह कोई नई बात नहीं है जब हमारे देश के नेताओं ने अपनी राजनीतिक लाभ के लिए हमारे देश की जनता को मूल मुद्दा जैसे कि महँगाई, शिक्षा, बिजली, पानी, सड़क , महिला सुरक्षा और विकास जैसे अत्यंत महत्त्वपूर्ण मुद्दे से भटकाकर धर्मिक मुद्दे को हवा देना अपना परम् कर्तव्य समझा है। आपको कुछ समय पूर्व सुप्रीम कोर्ट का फैसला याद होगा जो राममंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद पर आया था। इस विवाद ने कितने युवाओं की जान ली थी। कितने लोग बेसहारा और कितने दंगे हुए थे। देश में वही माहौल फिर से दुहराने की कोशिश की जा रही है। इस बार बाबरी मस्जिद के जगह पर ज्ञानवापी मस्जिद है।  ज्ञानवापी मस्जिद विवाद क्या है? आइये समझते हैं। हिंदुस्तान में जब मुगलों का शासन था तब कई मुगल शासक ऐसे थे जिन्होंने कट्टर थे। जिनका उद्देश्य सिर्फ़ अपने धर्म का प्रचार करना नहीं था। बल्कि उन्होंने कई हिन्दू धर्म के पूजनीय स्थानों को तुड़वाकर वहाँ मस्जिद बनवाया। यह बात किसी से छिपी हुई नहीं है कि वह अत्याचारी शासक थे जिनका सिर्फ एक लक्ष्य था भोली भाली हिन्दू जनता पर कहर बरपाना। यह एक लोकप्रिय...

'अमर देसवा' उपन्यास एक नजऱ , AMAR DESWA written by Praveen kumar

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'आपदा में अवसर' यह तो सबकी जुबाँ पर है पर आपदा में नागरिकता, व्यवस्था, मनुष्यता, शासन-प्रशासन की जाँच करती है "अमर देसवा"। हर जगह ईश्वर नहीं पहुँच सकते , इसलिए उन्होंने मानव में मानवता दी। हर व्यक्ति के पास कुछ अधिकार होने चाहिए। जिससे वह आधारभूत चीजों तक अपनी पहुँच सुनिश्चित कर सके। इसलिए राष्ट्र में नागरिकता की बात की गई है। एक अकेले आदमी की वैसी शक्ति जिसमें सभी शक्ति निहित हो। वह अपने समाजिक और राजनीतिक अधिकार को अच्छे से समझता हो। कर्तव्यों को अपने जीवन का आधार मानता हो। लेकिन इस महामारी ने मनुष्यता और नागरिकता दोनों को तार-तार कर दिया।   "डाकसाहब! यह भी एक नियतिवादी ख़्याल है। मैं कोई हरिश्चंद्र नहीं हूँ जो सत्य और असत्य की बात करूँ! मैं साधारण बात कर रहा हूँ। नागरिक अधिकार की बात कर रहा हूँ। क्या हमें इतना भी हक़ नहीं कि हम कीचड़ में सुअरों की ज़िंदगी न जीएँ? आप तो अघोरी बाज़ार के पहले मोड़ पर क्लीनकी खोले हुए हैं और ख़ुद आते हैं सुन्दर नगर से। कभी अंदर की सड़क पर आइए डाकसाहब! यथार्थ से सामना होने से अवधारणाएँ बदल जाएँगी।" ...