बोलना ही है:-रवीश कुमार

अभी रात के ढाई बजे है (2.30) इस वक्त 20 साल का मेरे जैसा युवा दिल्ली की हल्की सी ठंड में पतली चादर ओढ़े अपनी महबूबा से फोन पर बातें कर रहा होगा या फिर सपने में उसकी हल्की सी मुस्कान को अपने अनुसार समझ रहा होगा।,या फिर upsc iit ,medical या भविष्य के बारे में सोच रहा होगा। जबकि मेरी नींद उड़ी हुई है।
          मेरी नींद किसी प्रेमिका के लिए नही उड़ी मेरी नींद उड़ी अपने भारत की दुर्दशा को देख कर ,युवा छात्रों पर चल रही लाठी को महसूस कर। किसानों के आत्महत्या को सोचकर ,पुलिस और वकील की लड़ाई को देखकर, मैं जाग रहा हूँ सोच रहा हूँ क्या करूँ? कौन सा रास्ता निकालू ?इन सब से कैसे मुक्ति पाउ??। बेचैन हूँ।कभी कभी तो रोने तक का मन कर जाता है।
                         इसे लिखने से पहले मैं एक किताब पढ़ रहा था। #बोलना_ही_है।जिसे लिखा है :-रैमॉन मैगसेसे अवॉर्ड 2019 से सम्मानित #रवीश_कुमार, मैं उन्हें इस अवार्ड के लिए शुभकामनाएं देता हूँ। उन्होंने विश्व मे पत्रकारिता के क्षेत्र में हमारे देश का नाम सम्मान के साथ प्रस्तुत किया।
        #बोलना ही है ,इस किताब का आवरण तैयार किया है #मैथिली दोशी अफाले जी ने,जिसका प्रकाशन #राजकमल प्रकाशन समहू ने किया है। इस किताब का चेहरा या कहे तो मुख्य पृष्ठ पर #रवीश कुमार का नाम लिखा हुआ है जो कि पीले रंग से लिखा हुआ है। पीला रंग जो हमे यह कहता है कि ,अरे ओ पाठक !तैयार रहो हमेशा तैयार रहो जैसे तुम्हारे लेखक तैयार है। भारत की जनता तुम्हें हमेशा तैयार रहने की आवश्यकता है कोई नही जानता कि अगली बारी किसकी है। मेरी , तुम्हारी ,इसकी ,उसकी, किसकी है? अगली बारी पता नही ? इसलिए तैयार रहो। कुमार के 'म' वर्ण के नीचे से एक माइक लगा हुआ है। वो भी पीले रंग में रंगा हुआ है वो भी तैयार खड़ा है ।कहता है जब पत्रकार अपना काम भूल गए है।तो तुम्हें, अरे ओ जनता तुम्हें ही पत्रकार भी बनना पड़ेगा। माइक की तार पतली है पर लम्बी है वो भी पीली ही है। तार यह कहती है कि जनता जुड़ जाओ इस तार से,, यह तार पतली जरूर है पर लम्बी है याद रहे यह तार सिर्फ  तार नही 'राष्टवाद' है जो हमे हिन्दू मुस्लिम में नही बाटता ,हम सभी भारतवासी एक है,एक है।
            उसके नीचे लिखा है #बोलना ही है  जो कि किताब का शीर्षक है। और शायद आज जरुरी भी है। पहले पृष्ठ का रंग काला है जो यह बतलाता है कि वर्तमान पत्रकारिता अंधेरे में चली गयी है जो जनता को अंधेरे की ओर धकेल रही है। यह रंग साफ साफ अपनी बातें रख रहा है।
      किताब के दाये हाथ के नीचे की तरफ़ लिखा हुआ है ""लोकतंत्र, संस्कृति और राष्ट्र के बारे में"" किताब के अंदर की बात तीन चार शब्दों में समेट दिया है।

     रवीश ने इस किताब में कुल 12 लेखों का हवाला देते हुए वर्तमान पाठक को भविष्य की कठिनाई को दिखाया है।जबकि रवीश ने ये किताब कुछ वर्ष पूर्व लिखना शुरू किया था।

पहला लेख है #बोलना :- रवीश ने एक जज की मौत से इस लेख की शुरुआत की,वो भी कोई निचले स्तर के जज की नही सुप्रीम कोर्ट के जज की  मौत। ये लेख डर से भरा हुआ है, शायद सबसे ज्यादा मेहनत और साहस की जरूरत रवीश को इसी लेख को लिखने के दौड़ान हुई होगी। शायद दो तीन घुट पानी भी पीना पड़ गया हो। रवीश ने कैरवान कि स्टोरी का हवाला देते हुए सत्ता में मौजूद  नेता बीजेपी के पार्टी अध्यक्ष और वर्तमान लोकतांत्रिक भारत के गृहमंत्री अमित शाह को शक के घेरे में खड़ा दिखाया है। जज #लोया की मौत उनके घर परिवार वालो का एक शब्द भी ना बोलना ,यहाँ तक कि जाँच की मांग तक नही किया जाना कही ,बोलने का डर तो नही ? इस ओर पहले लेख में रवीश ने दिखलाया है।

#रोबो-पब्लिक और नये लोकतंत्र का निर्माण:-रवीश ने इस लेख में फेक न्यूज़ को केंद्र विंदु बनाकर लिखा है,फेक न्यूज़ कौन फैलाता है कहा से शुरुआत होती है और इस न्यूज़ के ब्रांड अम्बेसडर कौन है? इसी क्रम में इन्होंने बताया कि बिना तैयारी के बिना तथ्यों की जाँच किये किसी से सवाल कर दो और बाद में वही सवाल सच बनकर जनता के सामने आ जाती है,बिना अध्ययन करने वाले लोग उसे ही सच मान लेते है।और स्वभाविक भी है क्योंकि  किसी के पास न्यूज़ का जाँच करने का फुर्सत नही ।
  एक उदाहरण देते हुए क्लासिक फेक न्यूज़ का हवाला दिया:- गुजरात चुनाव: नरेंद्र मोदी ने पूछा ,पाकिस्तान सेना के पूर्व डीजी अहमद पटेल को मुख्यमंत्री के रूप में क्यों देखना चाहते है[Mint on Sunday]
                   ये सवाल पूरी लापरवाही का उदाहरण है या फिर एक सोची समझी फेक न्यूज़। फेक न्यूज़ के सहारे देश के पूर्व प्रधानमंत्री के मर्यादा को उछाला गया ,इतना गंदे रुप में दिखाया गया जैसे इस देश मे उनका कोई योगदान ही नही। ये सब एक मजबूत फेक न्यूज़ का और देश बांटने वाली बात है।

#डर का रोजगार:-रवीश ने इस लेख के माध्यम से पत्रकारों के अंदर के भय को दिखाना चाहते है वो कहते है पत्रकारिता इतनी आसान नही है आज देश का माहौल ऐसा है कि अगर कोई सत्ता पार्टी से इतर विचार रखता है तो उसे मार दिया जाता है या उसे लिंच किया जाता है और इस तरह से किया जाता है कि वो डर कर गोदी मीडिया बन जाता है या पत्रकारिता छोड़ देता है। और जो इन चीजों से ना डरे ,राष्ट्र हित मे काम करे उसे मार दिया जाता है जिसमे उन्होंने #गौरी लंकेश की हत्या का उदाहरण दिया। गौरी लंकेश की शोक सभा मे मौजूद  कही ना कही ईमानदार पत्रकार खुद को जरूर देख रहा होगा।

#जहाँ भीड़, वहीं हिटलर का जर्मनी:-रवीश ने इस लेख में उस अंधी भीड़ का जिक्र किया जो इंसान को हथ्यार के रूप में इस्तेमाल करती है। ये किसी के नही है , हो सकता है भीड़ बड़ी हो ,,संख्या बल उनका बहुत ज्यादा हो ,पर ये हर बार सही नही होता कि जिस ओर भीड़ बढ़े वो मार्ग सही ही हो।जर्मनी के इतिहास में 9 और 10 नवम्बर की रात काली रात के रूप में इतिहास में दफन है।क्योंकि उस रात भीड़ उस ओर बढ़ी जो इंसानियत को शर्मसार करती है। जनता ,जनता रहे ,भीड़ ना बने रवीश के अनुसार भीड़ बनाना ,कभी और कही भी हिटलर की जर्मनी बन जाना है ,जो अपने भारत मे छिट-पुट रूप में उभर रहा है।

#जनता होने का अधिकार:-भारत की जनता धीरे धीरे अपने सारे अधिकार भूल रही है या यू कहे तो उससे अधिकार छीना जा रहा है,जिस जनता ने सरकार चुना नेता चुना ,उसी जनता को सरकार से सवाल पूछने में डर लगता है ,पत्रकार डरते है उनसे सवाल पूछने में। और इसी डर की वजह से जनता अपना अधिकार खो रही है। अगर सरकार ये किसी बड़े नेता से सवाल किया जाता है तो उस पर एक मोटी रकम की मानहानि का दावा ठोक दिया जाता है। और इतनी मोटी रकम जनता दे नही सकती इस डर से जनता सवाल नही पूछती। रवीश ने इस लेख में सवा रुपये के ईमान का जिक्र किया है और नारा दिया है:---
             ""एक मान, एक हानि
                एक राष्ट्र ,एक सम्मान
                सवा रुपये का सबक सम्मान!""

#बाबाओ के बाजार में आप और हम:-रवीश ने अपने इस लेख में ढोंगी बाबा के tv चैनल और उनके इतने ताकतवर होने का कारण बताया है कैसे वो महिला ,पुरुष ,को ज्योतिष विद्या के नाम पर ठगते है ,बाबजूद इसके की सबको पता है कि अगर बाबा को पता है कि दो रोटी गाय को खिलाने से धन की बारिश होती तो सबसे पहले ये काम बाबा खुद करते ,वो आम जन या भक्त से दान नही माँगते ,भोग विलासता का त्याग कर हिमालय पर रहते ,पर बाबा किसी फिल्मी हीरो से कम की जिंदगी नही जीते।इसके उदाहरण में गुरमीत रामरहीम का जिक्र किया ,जो फिलहाल जेल में है।

#हम सबके जीवन मे प्रेम:-प्रेम कहाँ करे? इस समस्या के साथ इस लेख की शुरुआत किया गया है।और ये सवाल जरुरी भी है आख़ीर कब तक ये आँखे छुप छुप कर मिलेगी।क्या प्रेम करना गलत है ।अरे हिन्दू में तो प्रेम ही भगवान है कृष्ण प्रेम के सबसे सच्चे भगवान ,मैं सोचता हूं कि कभी कृष्ण गोपीयों के साथ रासलीला करते रहते और पीछे से एन्टी रोमियो स्क्वार्ड आती और कहती ये सब गलत है । तुमने भारत की संस्कृति और भावना को ठेस पहुचाया है। ये कहते हुए भगवन को दण्डों से पीटा जाता तो कैसा दृश्य होता ? बस यही सवाल रवीश ने यहाँ छोड़ा है ।

#निजता का अधिकार संविधान की किताब में एक सुंदर-सी कविता:-निजता के अधिकार में फैसला करके sc ने नागरिकों को सक्षम बनाया है । सरकार की आलोचना करना ,उससे इतर मत रखना  कही से भी गलत नही है। निजता का अधिकार मौलिक अधिकार है ।इस लेख में रवीश ने बतलाया कि नौ जजों की पीठ ने आम सहमति से निजता की जो यह व्यख्या की है ,वह कानून की उबाऊ किताब में एक सुंदर सी कविता के समान है ।और यही हमारी उम्मीद भी है।

#डरपोक क़िस्म की नागरिकता गढ़ता मुख्यधारा मीडिया:-रवीश अपने इस लेख में मुखयधारा की मीडिया से तंग आकर ,जनता ही मीडिया का रुप धारण कर ली है का जिक्र करते है ,आज सोशल मीडिया यू ट्यूब व्हाट्सअप्प इन सब की मदद से लोग अपना वीडियो खुद बनाकर खुद ही सभी लोगो तक पहुचाते है।क्योंकि मुख्यधारा की मीडिया चाटुकारिता करती है ,पत्रकारिता के लॉ और इथिक्स को किसी कचड़े में फेंक आयी है। इस लेख में इन्होंने प्रधानमंत्री जी के मन की बात की है कहा है कि :-इन tv चैनलो पर खुद को देखते हुए प्रधानमंत्री जी क्या सोचते होंगे? खैर ,वे तो फ़क़ीर है।फ़क़ीर का इन सवालों से क्या लेना देना।
       
#2019में1984 पढ़ते हुए:-इस लेख में रवीश ने एक उपन्यास का जिक्र किया #1984  ,,इस लेख को पढ़ते वक्त मुझे लगा कि कहीं रवीश इस उपन्यास को पढ़कर कुछ ज्यादा ही चिंतित हो गए है।पर ऐसा नही था।दरअसल उन्होंने बीते समय मे लिखी गए उपन्यास 1984 को वर्तमान समय मे संजिदा बताया है और भविष्य में इसका और भयानक रूप होगा इस ओर इशारा किया है। इस उपन्यास में एक ऐसे तंत्र के भय को बताया है जो देश मे हो रही सभी गतिविधियों को देख रहा होता है जिसके राज में प्राइवेसी नाम की कोई चीज ही नही है। वो जब चाहे किसी को जेल में बंद कर सकता है उसका फ़ोन टेप कर सकता है।वो जो चाहे वो कर सकता है जिसका वो निजी लाभों के लिए भी फायदा लेता है। इस उपन्यास को जॉर्ज ऑरवेल ने लिखा है एक बार जरूर पढ़ें ।

#पंद्रह अगस्त को एक आइसक्रीम जरूर खाएँ:-इस लेख में रवीश की बातें मुझे जनता को फिर से आजादी के मतलब को सीखने वाली लगने लगी।आजदी के दिन हम ये देखते है कि हम क्या नही कर पाए ,क्या करना चाहिए था।और जरुरी ये भी है कि आजदी के इतने वर्षों में हम कहाँ से कहाँ आ गए ये कोई छोटी दूरी नही है। रवीश कहते है आजादी मनाइए आप ,राष्ट्र सम्मान कीजिये अपने देश के स्वतंत्रता सेनानी को याद कीजिये।उनका शुक्रिया अदा कीजिये ।यह सवाल मत कीजिये कि आपने ये क्यू नही किया .? क्योंकि उस समय यह कर पाना  भी बहुत मुश्किल था आज हम जो कुछ भी लिख पाते है पढ़ ,बोल लेते है ये सब उनकी दें है इसलिए रवीश कहते है कि खुशी जाहिर कीजिये कुछ नही है तो आइसक्रीम ही खा लीजिये।

#नागरिक पत्रकारिता की ताकत:-रवीश अपने आखरी लेख में कुछ शांत और सम्भावनो के साथ लिखते है कि ये देश कुछ अच्छे और ईमानदार लोगो पर टिका हुआ है । उन्होंने एक 24 साल की छात्रा रिवरबेंड की इराक पर हुए हमले,युद्ध और तबाही की रोज की स्थिति पर लिखे ब्लॉग का हवाला देते हुए कहा कि दुनिया के प्रमुख मीडिया संस्थानों ने माना कि जो काम सोशल मीडिया के जरिये एक लड़की ने किया ,वह कोई पत्रकार भी नही कर पाते। यह सिटीजन जॉर्नलिज्म है ।जो सिटीजन (नागरिक) होने की ताकत और अपनी ताकत की पहचान कराती है।
             हम सभी इस मोड़ पर है ,जहाँ लोगो को सरकार तक पहुँचने के लिए मीडिया के बैरिकेड को तोड़ना ही होगा।वरना उसकी आवाज दबी रह जायेगी।इस बात का उदाहरण आज का छात्र आंदोलन जो कि jnu से हो रहा है।
रवीश का अंतिम पंक्ति ""आज बड़े पैमाने पर नागरिक पत्रकारों की जरूरत है ,लेकिन उससे भी ज्यादा जरूरत है हर नागरिक के लोकतांत्रिक होने की।"" यह काफी है पूरे किताब को एक नागरिक को बोलने पर मजबूर करने की।
              किताब पूरी तरह से वर्तमान समस्या का एक गट्ठर है जिसे खोलते ही मन विचलित हो उठता है। बहुत सारी समस्याओं का वर्णन नही है इसमें इसका यह मतलब नही की वो समस्या घटित नही हो रही।
        मैं चाहूंगा ,भारत का हर नागरिक इस किताब को एक बार जरूर पढ़ें और अपने नागरिक होने का अधिकार वापस प्राप्त करें।


Sachin sh vats.



         

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