'अमर देसवा' उपन्यास एक नजऱ , AMAR DESWA written by Praveen kumar


'आपदा में अवसर' यह तो सबकी जुबाँ पर है पर आपदा में नागरिकता, व्यवस्था, मनुष्यता, शासन-प्रशासन की जाँच करती है "अमर देसवा"।

हर जगह ईश्वर नहीं पहुँच सकते , इसलिए उन्होंने मानव में मानवता दी। हर व्यक्ति के पास कुछ अधिकार होने चाहिए। जिससे वह आधारभूत चीजों तक अपनी पहुँच सुनिश्चित कर सके। इसलिए राष्ट्र में नागरिकता की बात की गई है। एक अकेले आदमी की वैसी शक्ति जिसमें सभी शक्ति निहित हो। वह अपने समाजिक और राजनीतिक अधिकार को अच्छे से समझता हो। कर्तव्यों को अपने जीवन का आधार मानता हो। लेकिन इस महामारी ने मनुष्यता और नागरिकता दोनों को तार-तार कर दिया। 

 "डाकसाहब! यह भी एक नियतिवादी ख़्याल है। मैं कोई हरिश्चंद्र नहीं हूँ जो सत्य और असत्य की बात करूँ! मैं साधारण बात कर रहा हूँ। नागरिक अधिकार की बात कर रहा हूँ। क्या हमें इतना भी हक़ नहीं कि हम कीचड़ में सुअरों की ज़िंदगी न जीएँ? आप तो अघोरी बाज़ार के पहले मोड़ पर क्लीनकी खोले हुए हैं और ख़ुद आते हैं सुन्दर नगर से। कभी अंदर की सड़क पर आइए डाकसाहब! यथार्थ से सामना होने से अवधारणाएँ बदल जाएँगी।" पृष्ठ संख्या-23 

'नागरिकता' यह शब्द सुनकर चेहरे पर व्यंग्यात्मक हँसी आती है। क्या सचमुच हम नागरिक बचे हैं? जब अपने गिरेवान में झाँकता हूँ, अपनी स्वायत्ता की जाँच करता हूँ। सही सूचनाओं तक हमारी पहुँच है या नहीं, इस बात के लिए ख़ुद को टटोलता हूँ तो मुट्ठी भर भी नागरिकता नहीं दिखती। आज इस राष्ट्र का नागरिक निराश है। वह तो यह भी भूल चुका है कि नागरिकता किस चिड़िया का नाम है। यह बात हवा-हवाई बातें नहीं है। या फिर आपको निराश करने के लिए नहीं कह रहा हूँ, यह सच्चाई है। यही यथार्थ है और जब यथार्थ से व्यक्ति का सामना होता है तो सारी अवधारणाएँ शीशे की तरह चकनाचूर हो जाती हैं। एक साधारण व्यक्ति जब अपने आप को नागरिक के रूप में महसूस करता है तो उसे भरोसा होता है कि उसके साथ उसका एक राष्ट्र है जो उसकी सहायता मुश्किल से मुश्किल वक्त में करेगा। एक व्यवस्था पर उसकी उम्मीद रहती है कि वह उसकी सहायता आपदा में भी करेगी। पर जब आपदा आती है तो तंत्र उस वक्त भी 'अवसर' की तलाश में रहता है कि कैसे व्यक्ति से उसकी नागरिकता छीन कर अपने पूंजीपति मित्रों की थाली में परोस दिया जाय। व्यक्ति मरे तो मरे परन्तु अपने लालची पूंजीपतियों की जेब ख़ाली नहीं रहनी चाहिए। तभी तो आपदा के वावजूद जहाँ आम इंसान दो वक्त की रोटी के लिए संघर्ष कर रहा है वहीं तंत्र के मित्र अपनी आय में सबसे ज़्यादा इज़ाफ़ा लाते हैं। 

 "पंख तो पखेरूओं के लिए होते हैं मेरे बेटे। बड़े पेट वालों को पंख नहीं होने चाहिए। इससे सृष्टि नष्ट हो जाएगी।" पृ. स.-65 

 सृष्टि निर्माणकर्ता ने कुछ सोचकर ही सभी जीवों को जीने के लिए अलग-अलग गुण-दोष से सुसज्जित किया होगा। तभी तो जलचर को जल में तैरने की कला, पंक्षी को पंख, मनुष्य और सभी थलचर जीवों को पैर दिया होगा? मनुष्य ने बहुत कम समय में ही जीवन जीने की कला सीख ली।बाकी जीवों ने भी ज़रूर सीखा है, पर मनुष्य ने अपनी बुद्धिमत्ता का इस्तेमाल कर आज सभी प्राणियों में श्रेष्ठ बन बैठा है। मनुष्य बुद्धि से जीता है परंतु आज इसकी बुद्धि ही इसके इस परिणाम का कारण बन चुकी हैं। आज यह मनुष्यता को समाप्त कर देना चाहता है। यह भूल जाता है कि बड़े पेट वालों को पंख नहीं होनी चाहिए। नहीं तो वह सिर्फ जीवों को ही नहीं इस सृष्टि को भी समाप्त कर देगा। मनुष्य का लालच ही तो है जिसने आज एक मनुष्य को मालिक और दूसरे मनुष्य को ग़ुलाम बना दिया है। यही शोषण करने की चेष्टा धीरे-धीरे नागरिकता को खा जाएगी। 

 "मैनेजर पानी लेकर दौड़ा। सब कुछ लुट गया था। देखते ही देखते। किसी को समझ नहीं आ रहा था कि ऐसे अचानक सबकुछ कैसे घट गया? अपना सी.पी. मर गया! अरे!" पृ. सं.-167 

नागरिक की मौत हो जाती है। परिवार और अपनों पर दुःखो का पहाड़ गिर पड़ता है। व्यवस्था, तंत्र इस बात से अंजान नहीं है, कि नागरिक की मौत हो गई। व्यवस्था वह गिद्ध है जो मरे हुए के क़फ़न के भी चौगुने दाम ले। यहाँ समाज भी उतना ही दोषी है जितना की व्यवस्था या तंत्र। साथ ही वह भी दोषी हैं जो इस समाज में रहते हैं, जिसने इस समाज को बनाया है, यानी कि हम और आप। 
आपदा के दूसरे लहर में जब चारों ओर से सिर्फ़ रोने की आवाज़ आ रही थी। हम अपनों के लिए एक ऑक्सीजन सिलेंडर की व्यवस्था नहीं कर पा रहे थे। तो दवे पैरों से एक आवज़ आयी कि सिस्टम फेल हो गया है। वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश के रे ने कहा था कि सिस्टम फेल नहीं हुआ है , कोई सिस्टम था ही नहीं। हमें हमारे तंत्र ने भगवान के भरोसे छोड़ दिया था। तभी तो उतर प्रदेश की नदियां लाशों की नदियां बन गयी थी। नदी किनारे की भूमि श्मशान में बदल गयी थी। तंत्र लँगड़ा घोड़ा हो गया है। जो अब मलहम लगाने से ठीक नहीं होगा। इस घोड़े को मरना होगा। 

"अरे क्या है यार? क्या फ़ालतू सोच रहा हूँ मैं? अमृत अपने सिर को एक बार झटका और ख़ुद पर ग़ुस्सा भी हुआ।..."पृ.सं.-188 जो काम हम हकीकत में नहीं कर पाते, वही काम हम कल्पना के माध्यम से करते हैं। जब हम कल्पना के अति का शिकार हो जाते हैं तो उसमें धसते चले जाते हैं। अमृत के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ, हक़ीक़त में अमृत महन्त, रामायन का कुछ न बिगाड़ सका इसलिए उसने कल्पना के माध्यम से उसे नुकसान पहुँचाने की कोशिश की। शायद जो ख़ुशी उसे हक़ीक़त में क़भी न मिली, वह उसे कल्पना के माध्यम से मिल रही थी। वह कजरौटा के साथ मिल अपने स्वांग रचा रहा था। और मन ही मन गुदगुदा रहा था। जब हम कल्पना कर रहे होते हैं। तब हम दूसरे किरदार के संवाद भी खुद बोलते हैं। और ऐसा हम इसलिए कर पाते हैं क्योंकि हम उस किरादर को अपने हिसाब से अच्छे से समझ रहे होते हैं। अमृत भी कुछ ऐसा ही कर रहा था। जिसमें उसे खुशी मिल रही थी। 

 "अपील करनी चाहिए थी। हक़ था उसका। पर बड़ा भाई बार-बार विधि का विधान मानकर अमृत की हर बात नकार जाता। थककर अमृत ने यह कहते हुए फ़ोन पटक दिया था'साले कायर'।" पृ. सं.- 205 

मनुष्यता तार-तार हो गयी है। नागरिक कायर हो गए हैं, नागरिकता समाप्त हो चुकी है। बार-बार अमृत के प्रयास के बाबजूद भी अपील नहीं करने की इच्छा थी छोटू के बड़े भाई की। वह उसकी मृत्यु को नियति मानता है। मृत्यु नियति है पर प्रयास नहीं करना कायरता। पर यहाँ सिर्फ यह कायरता ही नहीं थी। यहाँ थी तंत्र की विफ़लता, आज भी आम नागरिक के लिए न्याय आसान नहीं है। नागरिक न्यायालय, कोर्ट कचहरी का नाम सुनकर ही काँप जाते हैं। वह जानते हैं कि इस अंधी कानून व्यवस्था में वह सिर्फ़ पिसते चले जायेंगे। उन्हें कुछ भी हाथ नहीं लगेगा। ऐसा हुआ भी था छोटू को बचाने के चक्कर में सम्पति आधा हो चुकी थी। जो था सब लूट चुका था। अब जो कुछ बचा खुचा था उसे भी भी उसकी मौत के बाद अपील करने में नहीं लगाया जा सकता था। वह कायर नहीं थे। बस उन्होंने राष्ट्र, नागरिक, नागरिकता से इतर अपने बचे खुचे भविष्य को स्वीकार कर लिया। जिसे उन्होंने नियति का नाम दिया। 

 अमर देसवा पढ़ने पर मुझे लगता है कि मेरे अंदर नकारात्मकता बढ़ी है, परन्तु एक तरफ यह लगता है कि यह कोई नकारात्मकता नहीं है, यह आपदा का यथार्थ है जिसे स्वीकारने का मेरा मन नहीं है, ठीक वैसे ही जैसे सरकार कोरोना से मरने वाले आंकड़ो को स्वीकार नहीं कर रही है, और लाशें नदी में तैर रहीं हैं। वो मौत देख ऐसा लगता है जैसे किसी ने सफ़ेद कागज़ पर नागरिकता लिखकर छन से जला दिया हो। सबकुछ खत्म हो गयी हो। वहाँ जलने के कोई प्रमाण तक नहीं रह गया हो। सिर्फ ठंडी ठंडी लाशें क़फ़न ओढ़े गहरी नींद में सोयी हुई हैं। 

 "जहँवा से आयो... जहँवा से आयो अमर वह देसवा।" 

 'अमर देसवा' व्यवस्था के तिलिस्म में नागरिकता का आख्यान करती है। जिसे लिखा है प्रवीण कुमार ने।(असिस्टेंट प्रोफेसर दिल्ली विश्वविद्यालय) आवरण चित्र: शिवराज़ हुसैन का है। आवरण की सज्जा: शुऐब शाहिद ने तैयार किया है। किताब छपकर राजकमल के ही राधाकृष्ण प्रकाशन से आयी है। आवरण जादुई है। जो कि उपन्यास से जुड़ी हुई है।
Email:- sachinsingh.beg@gmail.com

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