सरदार उधम सिंह फ़िल्म रिव्यु
साभार :- webdunia |
अमूमन इतिहास की फ़िल्मों में हम देखते हैं कि उन दृश्यों संवादों को जल्दबाज़ी में या एक छोटे से फ़्रेम में समा दिया जाता है। जिससे दर्शक को कल्पना के बड़े बाज़ार में जाकर कल्पना उधार लेना पड़ता है। परंतु सरदार उधम सिंह में निर्देशक ने दृश्यों को कल्पना से जोड़कर ज़मीन पर लाकर खड़ा कर दिया है। कुछ क्षण को तो ऐसा लगा जैसे उधम सिंह की जगह मैं अपनों की बोटियां चुन रहा हूँ। उन्हें अपने कंधों पर लाद लादकर अस्पताल पहुँचा रहा हूँ। वो जो छोटा बच्चा पानी पानी करते मरा , वो मेरी ही गोद में मरा।
हर बार पूरी कहानी में एक ऐसा किरदार होता है जो मन को भा जाता है और यह ज़रूरी नहीं कि वह मुख्य किरदार हो। रेशमा यानी कि बनिता संधू एक ऐसा मूक किरदार जिसने अपने छोटे से हिस्से से दर्शकों का ध्यान अपनी ओर कर लिया। जब वह कहती है - 'हम ब्याह नहीं करेंगे और हमेशा दोस्तों की तरह साथ रहेंगे'। वह हिस्सा प्रेम में पड़े जोड़े के मासूमियत को दिखलाता है। प्रेम में विवाह हो यह जरूरी नहीं, प्रेम तो सिर्फ प्रेम है। इसमें किसी तरह के बंधन की आवश्यकता नहीं,यह तो स्वतंत्र है।
किरदार जीवंत थे। विक्की कौशल ने सरदार उधम सिंह को बड़े ही जीवंत तरीके से निभाया। विक्की हमेशा मुझे चकित करते हैं। जब पहली बार विक्की को मसान में अभिनय करते देखा था तो लगा ही नहीं था कि यह बॉलीवुड की उपज है। कुछ ऐसे मुख्य किरदार होते हैं जो बस छा जाते हैं। जलियांवाला बाग की तरफ जब पहली बार विक्की को दौड़ते देखा लगा ही नहीं कि यह कोई अभी अभी जवान हुआ लड़का नहीं है। वही उन्मुक्तता, वही ग्रामीण लड़के की दौड़ दिखी। जो असल में होती है। यहीं कारण है कि विक्की किरदार निभाने में वास्तविकता के बेहद करीब रहे। कुछ- कुछ झलक कहीं-कहीं पर इरफ़ान साहब जैसी लगी।
सेट डिजाइनर और दृश्य निर्माणकर्ता की बड़ी भूमिका दिखी। जलियांवाला बाग दृश्य मानों रुला ही दिया था। इतिहास की फिल्मों का सबसे बड़ा काम है भविष्य की पीढ़ी को हमारे पूर्वजों के द्वारा किये गए बलिदान से अवगत करना जो कि इस फ़िल्म ने किया। सभी युवाओं को इस फ़िल्म को देखना चाहिए।
छोटे-छोटे किरदारों के संवाद चोट कर जाते थे। 'सबने फंदे ही चूमना है ना!'
यह पंक्ति सरदार उधम सिंह के दृढ़ निश्चय को बतलाती है। मैं होता तो यह बात मुझे बुरी लग सकती थी। पर उधम कहता है- आप लोग अपना ख्याल रखना। और वहाँ से चला जाता है। उधम क्रांति की ज्वाला में धधक रहा था।
कुल मिलाकर देखा जाय तो पूरे फ़िल्म को बहुत बड़े केनवास पर धीरे-धीरे फिल्माया गया है सभी किरदारों के पास पर्याप्त अभिनय और संवाद का मौका दिया गया। हर दृश्य- फ्रेम को वक्त के अनुसार दिखाया गया। अंग्रेजों के संवाद अंग्रेजी में ही कहे गए। यह नहीं कि " डूगना लगान देना पड़ेगा" इस तरह के थे। फिल्मों के दर्शक पढ़े लिखे हो रहें हैं उनकी पहुँच अब अँग्रेजी फ़िल्मों तक है। और वह अँग्रेजी संवाद को स्वीकार करने में हिचकते भी नहीं। यह बात मुझे बहुत आकर्षित की।
हालाँकि फ़िल्म का धीमा होना कुछ दर्शकों को पसन्द ना आये।परन्तु इस फ़िल्म का धीमा होना मेरे हिसाब बहुत जरूरी था।क्योंकि इतिहास के जिस स्थान पर हमें कल्पना के माध्यम से पहुँचना था वहाँ हमें पहुँचने में थोड़ा तो वक्त जरूर लगेगा। चाहे आपने कितनी ही फिल्में क्यों न देख ली हो या बनाई हो।
फ़िल्म हर युवा के लिए है। हर उस वीर उस क्रांतिकारी के लिए है जो ग़लत कानून को ग़लत कह सके। भगत सिंह के आदर्शों पर चलने वालों के लिए है। जो क्रांति की ज्वाला जलाना चाहते हैं।
यह फ़िल्म याद की जाएगी।
मैं इस फ़िल्म को 5 में से 3.8 देता हूँ।
Shandar
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