'द' से "दिल्ली" 'द' से "दरियागंज"
'द' से "दिल्ली" 'द' से "दरियागंज"
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दरियागंज |
अपने सच्चे साथी की खोज में 27 दिसम्बर 2020 को सुबह 9 बजे हम निकलें। हमने तय किया कि आज द-से-दिल्ली के द-से-दरियागंज घूमने चलेंगें। GTB नगर बस स्टॉप से दरियागंज के लिए 901 नम्बर की बस ली और हम चल दिये।
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सड़क पर बिछी किताबें |
इस भ्रमण की योजना हम दो व्यक्ति ने मिलकर तय किया था। एक मैं और दूसरे मेरे प्रिय अंशु भैया।( अंशु चौधरी , संस्थापक ,चिंतन साहित्यिक संस्थान, दिल्ली विश्वविद्यालय)। अंशु भैया ने हाल फिलहाल ही अपनी परास्नातक की पढ़ाई हिंदी साहित्य से पूरी की है और आगे की पढ़ाई की तैयारी में जुटे हुए हैं।
हम दोनों गुरु-शिष्य दरियागंज के लिए साथ ही निकले थे। रास्ते में (बस में) हमने अपने हाल-चाल परिवार के बारे में पूछा और फिर संस्था और उससे जुड़े हुए लोगों की बातों पर कुछ टिप्पणी की, अगले साल के कार्यक्रम की कुछ बातें, कुछ प्रोफेसर और भविष्य से जुड़ी हुई बात भी हुई। बातों ही बातों में भैया ने बताया कि वो भी प्रभाकर प्रकाशन से जुड़े हैं। मुझे बड़ी रोचकता हुई कि प्रकाशन में क्या होता हैं? तब उन्होंने ने बताया कि बहुत सारी चीजें है, उसमें सबसे सीखने लायक प्रूफ रीडर का काम है। टेक्स्ट को पढ़ना और बारीक से बारीक गलती को उससे निकाल कर दूर करना। शायद मुझे ठीक से याद नही लेकिन उन्होंने कहा था कि एक प्रूफ रीडर एक टेक्स्ट को तीन बार पढ़ता हैं उसकी पड़ताल करता है। तब वह फाइनल करता है। उन्होंने हास्य रूप में कहा कि लेखक बड़ा ही बेबकूफ और मूर्ख होता है। वह लिखने वक्त एक अलग दुनिया में होता हैं और ढ़ेर सारी गलतियां करता है। प्रूफ रीडर का काम है कि उन गलतियों को निकाल कर उसे शुद्ध से शुद्ध रूप प्रदान करें। इसमें बहुत बारीक चीजें हैं जो धीरे-धीरे सीख जाओगे। उन्होंने कहा कि यह रोचक काम हैं हम जैसे के लिए और भविष्य भी हैं इसमें। फिर उन्होंने कई सम्पादक का नाम भी लिया जिसमें मुझे दो ही नाम याद हैं सत्येंद्र निरुपम जी और संजीव जी और इनके बारे में बताया कि ये कितने मेहनत करते हैं किताबों पर। और ठीक ठाक कमा लेते हैं।
हमारी बातें खत्म नही होने वाली थी। लेकिन रास्ते तो सीमित हैं ना? हम लोग दरियागंज पहुँच गए। उन्होंने कहा यही राजकमल प्रकाशन और ढेर सारे प्रकाशन मिलेंगे। तब मुझे याद आया कि मैं तो रोज दिन-रात निरुपम जी की फोटोग्राफी देखता हूँ। दिनडायरी और रातडायरी के नाम से, मैं मन ही मन मुस्कुरा रहा था। मेरी आँखों को सुकून मिल रहा था।
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अंशु चौधरी |
हम जब वहाँ पहुँचे तो एक दो दुकानें ही खुली थी। तो हमने तय किया कि चलो दरियागंज का भ्रमण किया जाय, तब तक सारी दुकानें खुल जाएंगी। बस स्टॉप से आगे बढ़कर सड़क के दायीं तरफ हम आ गए और फिर भैया ने कहा कि चलो घूमते हैं, वो बड़े ही आत्मविश्वास के साथ कदम बढ़ाए जा रहें थे मैंने पूछा कि भैया आप ने तो कई बार इस गली में घूमे होंगे ना? उन्होंने मेरी तरफ देखा और कहा नहीं सचिन! पहली दफा इस गली में जा रहा हूँ। गली बहुत सकरी थी और अंधेरा भी था मैंने कहा भैया। (शायद वह चेहरे के भाव को समझ गए) वो कहते हैं अरे कुछ नहीं होगा। ये गली कहीं तो कहीं जाएगी ही ना? कहीं तो मिलेगी ही ना? वहाँ से फिर वापस आ जाएंगे। यह मेरे जीवन का पहला रास्ता था जिसमें मैं बिना किसी मंजिल को जाने आगे बढ़ रहा था। मुझे मजा आ रहा था। घर से वापस जब दिल्ली आया तो फिर जिंदगी एक कमरे की हो गयी थी। मेरे पैरों को बहुत सुकून मिल रहा था। कुछ देर चलने के बाद हम लोग मेन सड़क पर आ गए। घूम कर वहीं आ गए जहाँ से चले थे। फिर भैया एक किताब की भूमिका बताते हुए कहा था कि(किताब का नाम भूल गया) इस किताब में एक गुरु के दो शिष्य होते हैं वह दोनों को एक काम सौंपते हैं कि एक को सत्य की खोज करनी हैं दूसरे को असत्य की। जब दोनों अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेते हैं और वापस अपने गुरु के पास आते हैं और बताते हैं कि यह सत्य हैं और यह असत्य। तो निष्कर्ष यह निकलता हैं कि एक चीज जो एक के लिए सत्य हैं वह दूसरे के लिए असत्य हैं जो दूसरे के लिए असत्य हैं वह पहले के लिए सत्य। इस संसार में कुछ भी ना तो सत्य हैं और ना ही असत्य। सिर्फ यह देखने के नजरिये पर निर्भर करता है। यह बात सुनते हुए मुझे मेरे 12th के फिजिक्स के शिक्षक की याद आ गयी जो कहते थे कि दुनिया में सभी चीजें इस बात पर निर्भर करती हैं कि वह देखी कहां से जा रही हैं। उनका प्रसिद्ध वाक्य था " एव्री थिंग्स डिपेंड ऑन फ्रेम ऑफ रेफेरेंस"
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सीनियर |
प्रूफ रीडर के प्रति मेरी जिज्ञासा खत्म नहीं हुई थी, मैंने बोला भैया आपको तो टेबल और चेयर भी मिले होंगे। दरअसल मुझे ऑफिस में बैठकर वो काम करने वाले लोग बहुत अच्छे लगते हैं। उन्होंने कहा चलो तुमसे कुछ सवाल करता हूँ फिर उन्होंने मुझे कुछ शब्द दिए और कहा बताओ ये कैसे लिखते हैं। उन्होनें पूछा महत्त्वपूर्ण, जरूरी और भी कुछ थे मुझे याद नहीं। महत्त्वपूर्ण लिखने की जगह मैंने महत्वपूर्ण बोला और जरूरी लिखने में 'ऊ' की जगह 'उ' बोल दिया। फिर वो मुझसे कुछ समकालीन लेखक और कवि का नाम पूछें कुछ का नाम लिया और कुछ का नहीं पता, बोला। फिर उन्होंने पूछा कि वो कौन से हिंदी के अक्षर हैं जिनमें नुक़्ता का प्रयोग होता हैं, मैंने एक दो का नाम लिया और चुप हो गया। फिर उन्होंने मुझसे कहा, अच्छा। सॉरी तुम तो हिन्दी से हो ही नहीं ना? मैं पहले नहीं समझा, मैंने कहा नहीं भैया मैं हिन्दी से ही हूँ। वो कहते हैं अरे नहीं नहीं तुम हिन्दी से नहीं हो। तब मुझे समझ आया कि वो मुझ पर हँस रहें थे। पर कोई ना मैंने कहा भैया मैं पढ़ लूँगा सब पढ़ लूँगा और आपसे ज्यादा जानकार बनूँगा एक दिन। उन्होंने कहा मैं तो यहीं चाहता हूँ। फिर उन्होंने बताया की हिंदी के पाँच ऐसे वर्ण हैं जिनके साथ नुक़्ता लगता हैं- क, ख , ग , ज और फ़।
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किताबें |
हम अब वापस दुकानों के पास पहुँच गए। और सारी दुकानें लगभग खुल चुकी थी। दुकानों के बाहर चिल्लम पट्टी मची हुई थी। 100 रुपये किलो, 200 रुपये किलो। 20 रुपये किताब इत्यादि इत्यादि। ये सभी गूंज अंदर ही अंदर ह्रदय को आह्लादित कर रहीं थी। हम दोनों के चेहरे पर मुस्कान थी। हम दोंनो भी दुकान में घुस गए और किताबें छाँटने लगे। भैया मंटो,भैया टैगोर,भैया यहाँ तो मुंशी जी का पूरा कलेक्शन हैं। वाह-वाह भैया मजा आ गया। भैया भी ढ़ेर सारी समकालीन किताबें छाँट कर अलग कर दिए और मैंने भी। फिर हम किताब को तौल कर रस्सी से बांधकर बाहर आ गए। हिन्दी साहित्य 200 रुपये किलो।
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हिन्दी साहित्य :200 रुपये किलो |
भैया की दो सीनियर से बात हुई कि वो लोग भी किताबें ले रहे हैं। मैंने कहां अब कहाँ चलना हैं? उन्होंने कहा चलो हम अपने सीनियर से मिलवाते हैं। थोड़ी देर ढूँढने के बाद वो लोग मिलें। उनके हाथों में किताबों की एक बड़ी सी गठरी थी। जिसे देख कर हम दोनों की आँखे खुली रह गयी। हम दोनो ने सोचा कि इतनी किताबें कैसे छाँटे होंगे? आने से पहले हम दोनों ने तय किया था कि यह बात गुप्त रखेंगे की हमने किताब ले लिया हैं अगर वो जानेंगे कि इतना महँगा लिया हैं तो वो मजाक उड़ाएंगे। लेकिन जब हम भैया के तरफ सड़क की दूसरी तरफ गए और किताबों को देखें इतने किताब , बाप रे। मजा आ गया था देख कर। चारों तरफ किताबें ही किताबें। जैसे किसान के चारों तरफ गेंहूँ या उनकी फसल बिखरी रहती हैं उसी तरह हमारे चारों तरफ सिर्फ किताबें थी।
हम दोनों ने उन्हें अपना नाम बताया और परिचय दिया। उनका नाम था अनुपम। एक दी भी थी। जिनका नाम मुझे अभी याद नहीं आ रहा। फिर भैया ने हम दोंनो के लिए कुछ किताबें छाँटी। हमने भी किताब लिया और आगे बढ़ गए।
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पटेल चेस्ट : चाय और समोसे |
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तस्वीर :- REDMI NOTE 7 PRO.
सारी
तस्वीरें खुद खींची हैं।
सचिन SH वत्स
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Great starting
ReplyDeleteThanku
Deleteकाफ़ी अच्छा लिखा है
ReplyDeleteकाफ़ी अच्छा लिखा है
ReplyDeleteThanku 💐
ReplyDeleteचित्रलेखा किताब है भाई वो
ReplyDeleteधन्यवाद sir 💐💐
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