जब नील का दाग मिटा :- पुष्यमित्र
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आवरण : नीले आसमान के बीच नील की कहानी |
जब नील का दाग मिटा :- पुष्यमित्र
चम्पारण
1917
जब नील का दाग मिटा , नील का दाग 19 लाख प्रजा(किसान) की कहानी हैं। चंपारण के किसान हर रोज प्लांटरो से शोषित और धमकाये जा रहें थे।
कहते हैं ना:- "किसी को इतना भी मत डराओ कि उसके अंदर से डर हीं खत्म हो जाये।"
चंपारण के किसान अपने लिए एक नेता ढूंढ रहे थे जो इनके दुःख दर्द से आजादी दिलाये, जबरन नील की खेती ना करवायें। और इन किसानों को मिला एक महात्मा! और उनके सहयोगी,
इस किताब के लेखक पुष्यमित्र हैं। इसका आवरण परिकल्पना: शुऐब शाहिद ने किया हैं। शुऐब की यह खासियत हैं वो किताब के अंदर छुपे मर्म का एक छोटा सा दीपक आवरण पर जला देते हैं। शुऐब को शुभकामनाएं। इस पुस्तक का प्रकाशन "सार्थक" राजकमल प्रकाशन का उपक्रम ने किया हैं। राजकमल प्रकाशन को भी शुभकामनाएं
...... और बदल गया देश
27 दिसम्बर 1916,काँग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन
मंच पर एक सीधा साधा किसान खड़ा था। जो अपने साथ 19 लाख किसानों की पीड़ा समेटे लाया था। जिसने यह जिद ठाना था कि वो अपने इलाके की दुःख दायी कहानी को सुनाकर , काँग्रेस की मदद से सरकार पर दबाब डलवाये। जिससे निलहों के अत्याचार से छुटकारा मिलें। जब मंच पर चढ़कर अपनी साधारण भाषा में उसने अपनी व्यथा सुनाई तो काँग्रेस के सभी कार्यकर्ता सेम सेम कह कर प्लांटरो की कड़ी निंदा करने लगे। परन्तु वह व्यक्ति यह समझता था कि इतने मात्र से चम्पारण का दर्द नहीं मिटेगा। इसके लिए उसे एक नेता की आवश्यकता पड़ेगी। जो उसकी लड़ाई में अहम भूमिका निभाये। उस दिन किसी को नहीं पता था कि आज का यह भाषण आने वाले दिनों में इतिहास में दर्ज हो जाने का जज्बा रखता हैं। मंच पर से उस किसान ने काँग्रेस के सभी नेताओं पर नजर डाला पर,परन्तु सभी नेता एक अलग और महत्वपूर्ण कार्य मे व्यस्त दिखे। और अंत में उस किसान की नजर गाँधी पर गयी। वह किसान पंडित राजकुमार शुक्ल थे। हालांकि वहाँ एक और सज्जन मौजूद थे। जिन्हें चम्पारण के किसान की व्यथा सुन आश्चर्य हुआ वो थे डॉ राजेन्द्र प्रसाद। उन्होनें कल्पना भी नही किया था कि कोई चम्पारण से काँग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में चम्पारण के किसानों की भी व्यथा उजागर करने आ सकता हैं।
चम्पारण गाँधी से पहले
पुष्य लिखते हैं कि गाँधी जी राजकुमार शुक्ल से मिलने से पहले वह नील के बारे में कुछ नही जानते थे।हालांकि वो नील की गोटियां देखें थे। परंतु उन्हें पता नही था कि वो कैसे बनती हैं। आज भी बहुत सारे लोग यह नही जानते कि नील कैसे बनता हैं।
और इस बात से मैं भी सहमत हूँ कि लोगों को नहीं पता कि नील कैसे बनता हैं मैं भी नहीं जानता , मैंने माँ को 4 बूंदों वाला उजाला इस्तेमाल करते देखा था।
भारतीयों को नील बनाने की कला सदियों से जानते थे।हड़प्पा और वैदिक काल में भी मौजूदगी दर्ज हैं।पुराने समय में नील की खेती पश्चिम में होती थी। बंगाल एक समय मे सबसे शीर्ष पर था। हालांकि वहां भी कुछ समय बाद घोर विद्रोह हुआ , विद्रोह का तरीका अहिंसात्मक था। और बंगाल के किसानों को सफलता भी मिलीं।
पुष्य लिखते हैं कि चम्पारण के 2,220 में से 1938 गांवों पर एक तरह से नील प्लांटरो की हुकूमत चलती थी।इतने बड़े इलाके में नील की खेती को फैलने की वजह बेतिया के राजा को कहा जाता हैं। जो कि एक ठोस वजह भी हैं। वो पहले ही अंग्रेजों के सामने हर चुके थें और भारी कर्ज भी उन पर था।
पुष्य लिखते हैं कि चम्पारण की धरती पर पहला नील विद्रोह 1867 में हुआ। उसी साल इससे पहले मधुवनी के पंडौल में विद्रोह हो चुका था। यहाँ के किसानों ने नील की जगह दूसरे फसल को बो दिया था।
पुष्य बताते हैं कि
अपनी पुस्तक 'सत्याग्रह इन चम्पारण' में डॉ राजेन्द्र प्रसाद लिखते हैं:
'अगर आप चींटी को भी तंग करते हैं तो बदला लेने के लिए वो डंक जरूर मरती हैं।फिर वे लोग तो जीते जागते इंसान थे। भला कब तक बर्दाश्त करते।'
पुष्यमित्र आगे लिखते हैं कि गोरले साहब किसानों के प्रति सहानुभूति रखने वाले अधिकारी थें। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में लिखते हैं , हिंसा की पहली वारदात 16 दिसम्बर,1908 को हुई जब परसा कोठी के पास कोठी के एक चपरासी को लोगों ने पिटाई कर दी थी।, यह जिक्र भी मिलता हैं कि फैक्ट्री के मैनेजर की भी पिटाई हुई हो।
गोरले अपनी रिपोर्ट के कन्क्लूजन में लिखते हैं कि
लोगों के मन में यह बात रहीं होगी कि वे अगर एक जुट होकर विरोध करेंगे तो असामीवार व्यवस्था से आजाद हो सकते हैं। यह बात उनके मन मे शीतल राय और उसके साथियों ने डाली । खाद्यान्न फसलों की कीमत में असामान्य बढ़ना उन्हें प्रेरित किया कि वे नील की खेती से आजादी पा लें, जिसका मेहनताना कई सालों से एक आना भी नहीं बढ़ा था, जबकि मक्के की कीमत दोगुनी हो गयी थी।
गोरले की रिपोर्ट स्पष्ट रूप से प्लांटरो की गलती को दिखा रहीं थी।
पुष्य लिखते हैं कि एम्मन ने राजकुमार शुक्ल का घर बार उजाड़ दिया। इसके बाबजूद भी वो लोगों को एकत्रित करते रहें थे। एक बार एम्मन ने मछली पकड़ने का आरोप लगा कर शुक्ल को तीन हफ्ते तक जेल में सजा काटने को भेज दिया।इस घटना के बाद उन्होंने प्रण लिया कि वो अपना सबकुछ इस आंदोलन में झोंक देंगें।
चम्पारण में गाँधी
पुष्य लिखते हैं कि 9 अप्रैल ,1917 को जब गांधी , शुक्ल के साथ पटना जाने वाली ट्रेन में बैठे होंगे तो उन्हें इस बात का शायद ही अंदाजा होगा कि अगले 11 दिन उनके जीवन में कितने महत्वपूर्ण साबित होने वाले हैं।
10 अप्रैल,1917 की सुबह गांधी ने बिहार की धरती पर पांव रखा । शुक्ल उन्हें सीधा डॉ राजेंद्र प्रसाद के घर पर लेकर गए। लेकिन उस वक्त राजेन्द्र बाबू पटना में नही थे। इस कारण गांधी का शुक्ल के साथ पटना की धरती पर पहला अनुभव खराब रहा। कुछ क्षण के लिए गांधी इस अनुभव से बहुत उद्धिग्न हुए। परन्तु तुरन्त ही वो सामान्य हो गए। और अपने भतीजे मगनलाल को पत्र लिखा जिसमें उन्होंने लिखा कि
मैं सिर्फ अपनी अनिश्चित स्थिति की बात तुम्हें बता रहा हूँ। तुम्हें कोई चिंता करने की जरूरत नहीं। क्योंकि मैं एकान्त का आनंद तो उठा हीं रहा हूँ। घर ठीक हैं। नहाने-धोने की सुविधा हैं,इसलिए शरीर की जरूरत पूरी हो रहीं हैं। आत्मा का विकास तो हो ही रहा हैं।
पुष्य लिखते हैं सिंध के निवासी जीवटराम भगवानदास कृपलानी मुजफ्फरपुर के ग्रियर भुमिहार ब्राह्मण कॉलेज के प्रधानाध्यापक थे।गांधी ने उन्हें तार भेजा कि उनकी वजह से मुज्जफरपुर में उनकी सुविधा हो जाएगी। परन्तु उस एक दिन ने कृपलानी की राह बदल दी। उन पर राजनीति गतिविधियों का इल्जाम लगाकर नौकरी से निकाल दिया गया।उसके बाद कृपलानी गांधी के ही होकर रह गए।
चम्पारण में आसानी से गांधी को काम करने नही दिया गया। उन्हें तरह तरह के इल्जामात और पत्राचार में उलझाए रखा गया।
18 अप्रैल 1917, उस रोज दस बजे से हीं सब डिवीजन मैजिस्ट्रेट के कोर्ट में और गोरख बाबू के घर पर भारी भीड़ जमा होने लगी थी। हर तरफ खबर थी की आज देश द्रोह के इल्जाम में गांधी जी को जेल भेज दिया जाएगा। इसके कारण जिस किसी को यह खबर मिलता वो इसी तरफ चला आता।
दरअसल भीड़ इस कदर बेकाबू हो गयी कि जब गांधी जी अदालत घुसे तो उनके पीछे दो हजार लोगों की भीड़ ने उस कमड़े में घुसने की कोशिश की। इस कोशिश में कचहरी के दरवाजे और खिड़की के शीशे टूट गए। मजबूरन कोर्ट को यह आदेश देना पड़ा कि गांधी को कुछ देर अलग बैठाया जाय।
कुछ देर बाद गांधी को बुलाया गया और उनके ऊपर इल्जाम लगया गया। जिसका जबाब उन्होंने बड़े ही चतुराई से दिया। और सारा गुनाह जो वो कह रहे थे कि यह गुनाह नही हैं, स्वीकार कर लिए। अदालत उन्हें जमानत पर छोड़ना चाहती थी। परन्तु वो इसके पक्ष में नहीं थे। गांधी का मानना था कि यह किसी तरह के अपराध की श्रेणी में नही आता इसके वावजूद आप मुझे दंड देना चाहते हैं तो दीजिये। और गांधी को आजाद कर दिया गया। गांधी लिखते हैं कि अधिकारियो को ऐसा लगा कि आज उनकी सत्ता खत्म हो गयी।
गांधी गाँव की ओर
गांधी अपना काम अपने सहयोगी के साथ शुरू हो गए थे। उन्होंने बयान दर्ज करना शुरू कर दिया था। लेविस महोदय ने यहाँ के बाद अनेक अड़ंगा लगया परन्तु गांधी अपने कार्य मे जुटे रहें।
इसके बाद अधिकारियों ने गांधी की जाँच से अच्छा सरकारी जाँच की मांग की और कहा कि इसमें सबको विश्वास होगा। सरकारी जाँच में गांधी को भी सदस्य बनाया गया और उनके द्वारा किये गए पूर्व जाँच का भी सहारा लिया गया। और हकीकत सामने आकर खड़ी हो गयी।
ताबूत में आखिरी कील: तीनकठिया का अंत
अब गांधी की टीम ने बयान दर्ज करना बंद कर दिया था। रांची में 11 जुलाई को बैठक हुई जिसमें यह तय हुआ कि 17 जुलाई से बेतिया में जाँच कमिटी काम करना शुरू करेगी। 17 को जांच कमिटी ने 11 बजे बेतिया राज स्कूल के प्रांगण से बयान दर्ज करना शुरू किया।
19 जुलाई को रैयतों की बारी आई पहली गवाही शुक्ल जी की थी। और विभिन्न तरीकों को अलग अलग जगह पर गवाही एयर सत्य की जाँच की गई।... इसके बाद कमिटी ने तय किया कि सितंबर में रांची में कमिटी की बैठक होगी।
22 सितंबर को गांधी रांची पहुँचें , 4तारीख को रिपोर्ट को लिखकर जमा कर दी गयी। रिपोर्ट में ज्यादातर बातें रैयतों के लिए थी। और फिर 18 अक्टूबर को सरकार ने इस रिपोर्ट को प्रकाशित किया। और चम्पारण के नील किसानों की जीत हुई।
इसी के साथ तीनकठिया प्रथा का अंत हुआ। चम्पारण के दो हजार से अधिक गांवों के 19 लाख से अधिक रैयतों के उन दुःखों का अंत हुआ जो पिछले पचास सालों से उनकी जिंदगी का रोड़ा बना बैठा था।
गाँधी एक 'महात्मा' थे और उनके सहयोगी किसी मठ योगी से कम नहीं थे। अपने प्रण का सफल होना शुक्ल के और चम्पारण की जनता के लिए किसी स्वर्ग से कम नही था।
पुष्यमित्र एक खोजी पत्रकार हैं यह बात इस किताब को पढ़कर समझ आती हैं। उन्होंने जितने किताबो संदर्भो की सहायता से इसे लिखा हैं उनकी मेहनत साफ साफ इस किताब में झलकती हैं।
मुझे इस किताब को पढ़ते वक्त ऐसा लगा कि मैं भी गांधी के साथ अलग अलग हिस्सों में घूम घूम कर काम कर रहा हूँ।
शुक्रिया! पुष्यमित्र जी।
शुक्रिया! राजकमल प्रकाशन समहू
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शुक्रिया पुष्यमित्र जी |
आपकी लेखनी में मुझे देश की एकता नजर आती है ,बहुत खूब ।
ReplyDeleteआपको सत सत नमन ।