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Showing posts from 2020

'द' से "दिल्ली" 'द' से "दरियागंज"

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 'द' से "दिल्ली" 'द' से "दरियागंज" दरियागंज कि ताब ही इंसान का सच्चा मित्र है परन्तु वह कौन सी किताब होगी? जो मनुष्य का सच्चा मित्र हो, यह कहना बहुत मुश्किल हैं! भोजपत्र काल से लेकर आजतक हजारों सालों में करोड़ों, अरबों-खरबों किताबें लिखीं गयी होंगी और लिखी ही जा रहीं हैं।इतने सारे किताबों के बीच अपना सच्चा साथी ढूँढना कितना मुश्किल है। इस सवाल का जबाब नहीं हैं मेरे पास कि वो किताब मुझे कब मिलेगी जिसे मैं यह कह पाउँगा की यह मेरा सच्चा साथी हैं, मित्र है।  अपने सच्चे साथी की खोज में 27 दिसम्बर 2020 को सुबह 9 बजे हम निकलें। हमने तय किया कि आज द-से-दिल्ली के द-से-दरियागंज घूमने चलेंगें। GTB नगर बस स्टॉप से दरियागंज के लिए 901 नम्बर की बस ली और हम चल दिये। सड़क पर बिछी किताबें                                            इस भ्रमण की योजना हम दो व्यक्ति ने मिलकर तय किया था। एक मैं और दूसरे मेरे प्रिय अंशु भैया।( अंशु चौधरी , संस्थापक ,चिंतन साहित्यिक संस्थान, दिल्ली विश्वविद्याल...

घर ना जाने का निर्णय

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नूतन:- गूगल की मदद से दायें कान में पानी चले जाने की वजह से बहुत दर्द हो रहा था। दिनभर मोबाइल और किताबों की मदद से खुद को व्यस्त रखा था। कोई भी दर्द रात को ज्यादा होता हैं जब आप सोने जाओ, और पूरे दिन को याद करो। तो आपको आपका दर्द भी याद आजाता हैं, मुझे याद हैं जब मुझे जख्म हो जाता या बुखार रहता तब भी मैं खेलने चला जाता, वापस जब घर आता तो मुझे दर्द या बुखार का याद आता, वैसे ही कल रात हुआ , शाम में छत पर बैठा था तब तक सब सही था। लेकिन रात के 8 बजे के बाद कान का दर्द इतना बढ़ गया था कि मुँह नहीं खुल रहा था। थोड़ा थोड़ा दर्द की वजह से अंदर ही अंदर बुखार जैसा लग रहा था। इस कोरोना के समय मे बुखार की पीड़ा बुखार के डर के सामने कुछ नहीं,  मुझे भूख लगी हुई थी। और दर्द भी हो रहा था। पिछले 2 महीने से ज्यादा दिनों से मैं अकेला हूँ। दिल्ली के एक कमड़े में, बहुत ही अजीब निर्णय था मेरा यहाँ रुक जाना, पर मेरा मन गाँव जाने का नहीं हुआ था।इसके पीछे बहुत सारे कारण थे।जिसमें सबसे बड़ा कारण था। कि मैं अकेले रहकर सीखना चाहता था , कैसी जीते हैं, मेरा रूम पार्टनर बहुत अच्छा हैं ...

बीस दिन बीत गये✔️☑️✅✔️☑️✅

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जलना तो हैं हीं बीस दिन बीत गए✔️✅☑️✔️✅☑️ ✔️ हर शाम मुझे सिर्फ एक दिन कटने का अहसास दिलाता हैं, अब तो सपने भी डराने वाले आते हैं। खुश रहने की कोई वजह नहीं हैं मेरे पास। किताबें नहीं पढ़ पाता हूँ। कुछ भी ऐसा नहीं हैं जिससे लगें की मैं इसके लिए जिंदा हूँ। हर पल मौत के करीब जा रहा होता हूँ। सुबह बस अब होती हैं। सुबह के साथ मैं नहीं होता। सूरज की मुलायम किरणें अब आँखों में चुभती हैं। 24 घन्टे में सबसे प्यारा मुझे रात हीं लगता था। अब रात भी गुजारना मुश्किल हैं। दिल में कोई अहसास बचा नहीं हैं। अपनों से अब फ़ोन पर बातें करने का मन नहीं करता। उनसे बातें करना मुझे अकेला होना याद दिलाता हैं। जिन सीढ़ियों पर चढ़कर मैं छत पर आराम करता था। वो सीढियां मुझे कहीं और लें जाती हैं। शायद किसी अँधेरे में , किसी सन्नाटे में। जहाँ मैं जोर जोर से चिल्ला रहा होता हूँ। पर मेरी आवाज सौ गुना तेज मुझे हीं सुनाई देती हैं। मैं कान बन्द कर घुटनों में दबा लेता हूँ। एक छोटे बच्चे की तरह जो माँ-बाप के झगड़े से डरा हुआ हो,, उस बच्चे को  लगता हैं कि वो अपनी कान बन्द कर लेगा तो माँ-बाप झगड़ा नहीं करेंगे। आँखों ...

जब नील का दाग मिटा :- पुष्यमित्र

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आवरण : नीले आसमान के बीच नील की कहानी जब नील का दाग मिटा   :-  पुष्यमित्र चम्पारण 1917 जब नील का दाग मिटा , नील का दाग 19 लाख प्रजा(किसान) की कहानी हैं। चंपारण के किसान हर रोज प्लांटरो से शोषित और धमकाये जा रहें थे।  कहते हैं ना:- "किसी को इतना भी मत डराओ कि उसके अंदर से डर हीं खत्म हो जाये।" चंपारण के किसान अपने लिए एक नेता ढूंढ रहे थे जो  इनके दुःख दर्द से आजादी दिलाये, जबरन नील की खेती ना करवायें। और इन किसानों को मिला एक महात्मा! और उनके सहयोगी,  इस किताब के लेखक पुष्यमित्र हैं। इसका आवरण  परिकल्पना: शुऐब शाहिद ने किया हैं। शुऐब की यह खासियत हैं वो किताब के अंदर छुपे मर्म का एक छोटा सा दीपक आवरण पर जला देते हैं। शुऐब को शुभकामनाएं। इस पुस्तक का प्रकाशन "सार्थक" राजकमल प्रकाशन का उपक्रम ने किया हैं। राजकमल प्रकाशन को भी शुभकामनाएं ...... और बदल गया देश 27 दिसम्बर 1916,काँग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन मंच पर एक सीधा साधा किसान खड़ा था। जो अपने साथ 19 लाख किसानों की पीड़ा समेटे लाया था। जिसने यह जिद ठाना था कि वो अपने इलाके की दुःख दा...

एक था डॉक्टर एक था संत :- अरुंधति रॉय

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एक था डॉक्टर एक था संत (मुख्य पृष्ठ) ""एक था डॉक्टर एक था संत"" किताब को तीन खंडों में मैंने पढ़ा जिसमें दो खंडों को लिख चुका था। अभी मैं इस पूरे किताब के बारे में एक साथ लिख रहा हूँ। इसमें पहले दो खंडों को शुरू में जोड़ दिया हैं। आखरी खण्ड अभी लिख रहा हूँ। पहला खण्ड आज मैं "एक था डॉक्टर एक था संत" पढ़ना शुरू किया, जिसे लिखा हैं अरुंधति रॉय Arundhati Roy ने और हिंदी अनुवाद :-अनिल यादव 'जयहिंद', रतन लाल ने किया हैं। इस किताब का प्रकाशन Rajkamal Prakashan Samuh ने किया हैं। इस किताब का विषय आंबेडकर-गाँधी सवांद जाति,नस्ल और 'जाति का विनाश' हैं।                       अरुंधति भूमिका में हीं इस किताब की मंसा स्पष्ट करती हुई लिखती हैं कि एक था डॉक्टर एक था संत को मूल रूप से डॉ.बी.आर. आंबेडकर लिखित प्रसिद्ध लेख जाती का विनाश (1936) के टिका सहित संस्करण की प्रस्तावना के रूप में लिखा गया था।  अरुंधति लिखती हैं कि आंबेडकर का यह भाषण कभी दिया ही नही गया ना देने की भी वजह को उन्होंने लिखा हैं। किताब में साक्ष्य, प्रमाण का भरपूर...

फ़िल्म रिव्यु :- पैरासाइट PARASITE

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                 # PARASITE(#पैरासाइट) पैरासाइट हिन्दी में कहें तो परजीवी, पहली बार यह शब्द 8वीं में सुना और पढ़ा था।पैरासाइट का उदाहरण मैंने अमरबेल और कोयल याद किया था विज्ञान की भाषा में कहें तो पैरासाइट वैसे जीव को कहते हैं जो दूसरे जीव पर निर्भर करता हो,वो अपने होस्ट को प्रत्यक्ष रूप से नुकसान नहीं पहुँचाता बल्कि धीरे धीरे उसके सारे न्यूट्रेन्ट्स ग्रहण कर लेता हैं जिससे होस्ट कमजोर हो जाता हैं ,उसे कोई दूसरी बीमारी हो जाती हैं और वो समाप्त हो जाता हैं।. दूसरी बार मैंने फ़िल्म दोस्ती में करीना कपूर को अक्षय कुमार को पैरासाइट कहते हुए सुना था।उस वक्त मैं पैरासाइट का मतलब समझ चुका था।    PARASITE #पैरासाइट एक बहुचर्चित कोरियन सिनेमा हैं। सर्वश्रेष्ठ विदेशी भाषा फिल्म का सम्मान भी प्राप्त हुआ। साथ हीं सर्वश्रेष्ठ निर्देशक - मोशन पिक्चर, सर्वश्रेष्ठ पटकथा - मोशन पिक्चर के लिए नामित भी किया गया। इसके डायरेक्टर 'Bong Joon-ho' हैं। जो इस तरह की फिल्में बनाते रहतें हैं। दक्षिण कोरिया तकनीक के मामले में अभी जापान और चीन से भी ...

हम देखेंगे अखिल भारतीय कन्वेंशन 1मार्च 2020

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          हम देखेंगे       अखिल भारतीय कन्वेंशन 1मार्च 2020 टीम अँधेरे में क्या लोग गीत गाएँगे? मैं थोड़ी देर तक सोचने लगा कि इसका जबाब क्या दूं। फिर वहीं जबाब देते हैं कि "अँधेरे में लोग अँधेरे के गीत गाएँगे" इसके बाद मैं फिर सोच में पर गया।  संजीव sir यह बात कार्यक्रम के शुरू में हुई थी और मुझे कार्यक्रम के समापन में समझ आया। मैं सोचता रहता था कि ये कैसी दो व्यक्ति की सरकार हैं जो सड़को पर बढ़ रही भीड़ को नहीं देख पा रहीं।जब विभिन्न भाषा ,बोली, साहित्य ,कला या अनेक विधा से जुड़े लोगों को एक मंच से हुंकार भरते हुए देखा, तो समझा सबकी समस्या एक जैसी ही हैं। बस वो अपने दुःख दर्द को अलग-अलग भाषा माध्यम से व्यक्त कर रहें हैं। हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू ,कन्नड़, तमिल आदि सभी भाषा ने स्त्री के दबे दर्द को दिखाया। एकता का सूत्र दिया।आजदी का मतलब समझाया,इंकलाब की भावना को जागृत किया। अपनी कला प्रस्तुत करती छात्रा    "संघर्ष व्यक्ति को पैना(तेज) बना देता हैं।"  वर्तमान तंत्र अपनी कुंठित मानसिकता की वजह से हम भारतीय...

दूर के ट्रोल सुहाने

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#दूर_के_ट्रोल_सुहाने - #आशुतोष_उज्ज्वल  #प्रकाशक:-#प्रतिभा_प्रतिष्ठान व्यंगकार वह चतुर प्राणी हैं जो समाज ,सरकार ,बुराइयों को सीधा चुनौती ना देकर व्यंग का मार्ग अपनाता हैं,उस पर आक्षेप करता हैं।  व्यंगकार वह डरपोक जीव हैं जो शाम में लौकी या टिंडे खाने की डर से बाहर ही खा कर घर आता हैं,और मोहतरमा से कहता हैं कि आज सुबह से ही पेट मे कुछ गुड़ गुड़ कर रहा हैं।                                         व्यंगकार व्यंग क्यों करता है? क्योंकि वह चतुर हैं,डरपोक हैं?,हँसोड़ हैं?,या फिर हैं?वह संवेदनशील ....................पता नहीं, वह क्या हैं? वह इन सब में से सबकुछ हो सकता हैं?या फिर कुछ भी नहीं?,पर एक बात तय हैं कि उसने सभी चीजों(समाज,सरकार ,बुराई) को नाना(विभिन्न) प्रकार से देखा होता हैं क्योंकि उसके पास खाली समय होता हैं।(मैं व्यंगकार को बेला नहीं कह रहा)                 इस किताब को क्यों पढ़ा जाना चाहिए?इसकी खासियत क्या हैं? ...