सरदार उधम सिंह फ़िल्म रिव्यु
साभार :- webdunia अमूमन इतिहास की फ़िल्मों में हम देखते हैं कि उन दृश्यों संवादों को जल्दबाज़ी में या एक छोटे से फ़्रेम में समा दिया जाता है। जिससे दर्शक को कल्पना के बड़े बाज़ार में जाकर कल्पना उधार लेना पड़ता है। परंतु सरदार उधम सिंह में निर्देशक ने दृश्यों को कल्पना से जोड़कर ज़मीन पर लाकर खड़ा कर दिया है। कुछ क्षण को तो ऐसा लगा जैसे उधम सिंह की जगह मैं अपनों की बोटियां चुन रहा हूँ। उन्हें अपने कंधों पर लाद लादकर अस्पताल पहुँचा रहा हूँ। वो जो छोटा बच्चा पानी पानी करते मरा , वो मेरी ही गोद में मरा। हर बार पूरी कहानी में एक ऐसा किरदार होता है जो मन को भा जाता है और यह ज़रूरी नहीं कि वह मुख्य किरदार हो। रेशमा यानी कि बनिता संधू एक ऐसा मूक किरदार जिसने अपने छोटे से हिस्से से दर्शकों का ध्यान अपनी ओर कर लिया। जब वह कहती है - 'हम ब्याह नहीं करेंगे और हमेशा दोस्तों की तरह साथ रहेंगे'। वह हिस्सा प्रेम में पड़े जोड़े के मासूमियत को दिखलाता है। प्रेम में विवाह हो यह जरूरी नहीं, प्रेम तो सिर्फ प्रेम है। ...