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Showing posts from April, 2020

बीस दिन बीत गये✔️☑️✅✔️☑️✅

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जलना तो हैं हीं बीस दिन बीत गए✔️✅☑️✔️✅☑️ ✔️ हर शाम मुझे सिर्फ एक दिन कटने का अहसास दिलाता हैं, अब तो सपने भी डराने वाले आते हैं। खुश रहने की कोई वजह नहीं हैं मेरे पास। किताबें नहीं पढ़ पाता हूँ। कुछ भी ऐसा नहीं हैं जिससे लगें की मैं इसके लिए जिंदा हूँ। हर पल मौत के करीब जा रहा होता हूँ। सुबह बस अब होती हैं। सुबह के साथ मैं नहीं होता। सूरज की मुलायम किरणें अब आँखों में चुभती हैं। 24 घन्टे में सबसे प्यारा मुझे रात हीं लगता था। अब रात भी गुजारना मुश्किल हैं। दिल में कोई अहसास बचा नहीं हैं। अपनों से अब फ़ोन पर बातें करने का मन नहीं करता। उनसे बातें करना मुझे अकेला होना याद दिलाता हैं। जिन सीढ़ियों पर चढ़कर मैं छत पर आराम करता था। वो सीढियां मुझे कहीं और लें जाती हैं। शायद किसी अँधेरे में , किसी सन्नाटे में। जहाँ मैं जोर जोर से चिल्ला रहा होता हूँ। पर मेरी आवाज सौ गुना तेज मुझे हीं सुनाई देती हैं। मैं कान बन्द कर घुटनों में दबा लेता हूँ। एक छोटे बच्चे की तरह जो माँ-बाप के झगड़े से डरा हुआ हो,, उस बच्चे को  लगता हैं कि वो अपनी कान बन्द कर लेगा तो माँ-बाप झगड़ा नहीं करेंगे। आँखों ...

जब नील का दाग मिटा :- पुष्यमित्र

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आवरण : नीले आसमान के बीच नील की कहानी जब नील का दाग मिटा   :-  पुष्यमित्र चम्पारण 1917 जब नील का दाग मिटा , नील का दाग 19 लाख प्रजा(किसान) की कहानी हैं। चंपारण के किसान हर रोज प्लांटरो से शोषित और धमकाये जा रहें थे।  कहते हैं ना:- "किसी को इतना भी मत डराओ कि उसके अंदर से डर हीं खत्म हो जाये।" चंपारण के किसान अपने लिए एक नेता ढूंढ रहे थे जो  इनके दुःख दर्द से आजादी दिलाये, जबरन नील की खेती ना करवायें। और इन किसानों को मिला एक महात्मा! और उनके सहयोगी,  इस किताब के लेखक पुष्यमित्र हैं। इसका आवरण  परिकल्पना: शुऐब शाहिद ने किया हैं। शुऐब की यह खासियत हैं वो किताब के अंदर छुपे मर्म का एक छोटा सा दीपक आवरण पर जला देते हैं। शुऐब को शुभकामनाएं। इस पुस्तक का प्रकाशन "सार्थक" राजकमल प्रकाशन का उपक्रम ने किया हैं। राजकमल प्रकाशन को भी शुभकामनाएं ...... और बदल गया देश 27 दिसम्बर 1916,काँग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन मंच पर एक सीधा साधा किसान खड़ा था। जो अपने साथ 19 लाख किसानों की पीड़ा समेटे लाया था। जिसने यह जिद ठाना था कि वो अपने इलाके की दुःख दा...

एक था डॉक्टर एक था संत :- अरुंधति रॉय

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एक था डॉक्टर एक था संत (मुख्य पृष्ठ) ""एक था डॉक्टर एक था संत"" किताब को तीन खंडों में मैंने पढ़ा जिसमें दो खंडों को लिख चुका था। अभी मैं इस पूरे किताब के बारे में एक साथ लिख रहा हूँ। इसमें पहले दो खंडों को शुरू में जोड़ दिया हैं। आखरी खण्ड अभी लिख रहा हूँ। पहला खण्ड आज मैं "एक था डॉक्टर एक था संत" पढ़ना शुरू किया, जिसे लिखा हैं अरुंधति रॉय Arundhati Roy ने और हिंदी अनुवाद :-अनिल यादव 'जयहिंद', रतन लाल ने किया हैं। इस किताब का प्रकाशन Rajkamal Prakashan Samuh ने किया हैं। इस किताब का विषय आंबेडकर-गाँधी सवांद जाति,नस्ल और 'जाति का विनाश' हैं।                       अरुंधति भूमिका में हीं इस किताब की मंसा स्पष्ट करती हुई लिखती हैं कि एक था डॉक्टर एक था संत को मूल रूप से डॉ.बी.आर. आंबेडकर लिखित प्रसिद्ध लेख जाती का विनाश (1936) के टिका सहित संस्करण की प्रस्तावना के रूप में लिखा गया था।  अरुंधति लिखती हैं कि आंबेडकर का यह भाषण कभी दिया ही नही गया ना देने की भी वजह को उन्होंने लिखा हैं। किताब में साक्ष्य, प्रमाण का भरपूर...